इतिहास

गोलालारे जैन जाति का इतिहास

गोलालारे जैन दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र से मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में आकर बसे थे। आठवीं शताब्दी के अंत से और नवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में गोलालारे जाति नर्मदा नदी के उत्तर में बसती चली गई। गोलालारों ने कृषि और वाणिज्य को जीविका का साधन बनाया था। इस समाज में सामान्य शिक्षा प्रचलित थी। ये लोग आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न, मध्यम स्तर के व्यापारी थे। इन्होंने अपनी अमिट छाप मंदिर एवं स्मारक के निर्माण करवाकर छोड़ी थी.

गोलालारे का अर्थ है श्रवणबेलगोला के साथ अथवा उससे जुड़े हुए। तात्पर्य यह है कि गोला, श्रमण बेल गोला का अंतिम शब्द है। लारे का अर्थ है साथ। यह जाति श्रवण बेलगोला जैन मत के अनुयायी हैं। इस जाति में खरौआ शब्द भी प्रचलित है। वे भी मूल गोलालारे हैं। गोलालारे जैन जाति बुंदेलखंड और जैनधर्म की रीढ़ की हड्डी है। इन्होंने अधिकांश प्रदेशों में जैन संस्कृति को सुरक्षित रखने में अपना महत्वूपर्ण योगदान दिया है।

विद्वानों के अनुसार गोलालारे का मूलनाम गोला-राड माना जाता है। राड शब्द राष्ट्रवादी है। अठारहवीं शताब्दी के हिन्दी कवि विनोदीलालजी ने अपनी फूलमाला पच्चीसी नामक रचना में जैनियों को चौरासी उपजातियों का उल्लेख किया है। जिसमें गोलालारे का उल्लेख किया हैं.

गोलालारों का अस्तित्व बुंदेलखंड और महाकौशल के विभिन्न नगरों में बहुलता से पाया जाता है। इस जाति के बहुत से परिवार आजीविका हेतु अपनी जन्मभूमि बुंदेलखंड छोड़कर भारत के विभिन्न प्रदेशों और अहमदाबाद, इन्दौर, ललतिपुर, दिल्ली, जबलपुर, कटनी, भोपाल, विदिशा आदि शहरों में जा बसे हैं.

इतना सुनिश्चित है कि इनका मूल उद्गमस्थल गोल्ल देश घूर दक्षिण में कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु के सीमावर्ती क्षेत्रों के बीच एक छोटा सा राज्य था, जो जैन राज्य था। कालांतर में किसी सबल राजा ने गोल्ल देश पर आक्रमण कर उसे पराजित किया और वहां के अधिपति वैराग्य धारण कर गोल्लाचार्य बन गए जो श्रवणवेल्गुलु के शिलालेख से स्पष्ट प्रतीत होता है.

इसके अलावा इतिहासकार नाथूराम प्रेमी ने खोज की थी। कि सूरत के पास गोलाराडे नाम की एक जाति रहती है। उनके अनुमान से वही जाति बुंदेलखंड में आकर गोलालारे कहलाई.

भिंड क्षेत्र में भी गोलालारों का बाहुल्य प्राचीन काल से रहा है। इनकी अधिकतम संख्या भिंड और ललितपुर में ही थी.

पं. फूलचंद शास्त्री जरवोरा (ललितपुर) निवासी ने गोलालारे जाति का निकास ग्वालियर से माना जाता है परन्तु गोलालारों की उत्पत्ति मथुरा से ग्वालियर होते हुए विदिशा तक के प्रदेश को माना जाता जाना ही श्रेयकर होगा.

एक कथानक ऐसा भी कहा जाता है कि इतिहास प्रसिद्ध गुप्त वंश की परम्परा में गोलकुंड में, जो मालवा का अंग था, वहां एक विद्वान गुलाबचंदजी रहते थे, जिन्होंने गोलालारीय समाज की स्थापना की थी.

दूसरे कथानक में तीर्थ क्षेत्र गोलाकोट ही गोलादेश है, जो शिवपुरी के पास है। यहाँ दक्षिण से विहार करते हुए गोलाचार्य आए, जो यहां दीक्षित हुए और उनका नाम आचार्य गोलाचार्य पड़ा। उनके दर्शनार्थ गोलाकोट के लोग गोल (समूह) में आए, महाराज द्वारा एक समुदाय से परिचय पूछने पर उस समुदाय के मुखिया ने कहा हम लारे (समीप) से आए हैं तब महाराज ने उन्हें गोलालारे की संज्ञा प्रदान की और वे गोलालारे कहलाए.